जिस मंज़िल-ए-मक़्सूद पे दम टूट रहा है लगता है मिरा ख़्वाब-ए-इरम टूट रहा है अश्कों पे मुझे ज़ब्त का इक फ़ख़्र था लेकिन वो संग-ए-यक़ीं तेरी क़सम टूट रहा है लैला से कहो राह-ए-जुनूँ में निकल आए सहरा में कहीं क़ैस का दम टूट रहा है हर शौक़ हर उम्मीद हर इक आरज़ू सालिम इक दिल था तिरे ज़ेर-ए-क़दम टूट रहा है इक बार मिरे चाँद को गहनाया था इस ने सूरज पे यूँ रातों का सितम टूट रहा है इक उम्र गुज़ारी है तिरी याद में 'कौसर' आ जा कि मिरी ज़ुल्फ़ का ख़म टूट रहा है