जिस में इक हुस्न-ए-तवाज़ुन हो वो नुदरत दी जाए क्या क़बाहत है अगर फ़िक्र को वुसअ'त दी जाए मशवरे क़ाबिल-ए-तस्लीम तिरे हैं कि नहीं ग़ौर करने के लिए कुछ मुझे मोहलत दी जाए मस्लहत झूट पे इंसान को माइल कर दे इस क़दर सख़्त न ता'ज़ीर-ए-सदाक़त दी जाए इस अमल से दिल-ए-फ़नकार पे क्या गुज़रेगी ले के महताब अगर शम्अ' की क़ीमत दी जाए सख़्त मुश्किल है ग़लत बात पे क़ाइल करना एक दो हों तो उन्हें फ़हम-ओ-बसीरत दी जाए बात तो जब है कि मम्नून-ए-बहाराँ हों सभी फूल तो फूल हैं काँटों को भी नुज़हत दी जाए चारा-ए-ग़म के लिए शर्त है इख़्लास 'नसीर' कौन है शहर में ऐसा जिसे ज़हमत दी जाए