'मंज़ूर' लहू की बूँद कोई अब तक न मिरी बेकार गिरी या रंग-ए-हिना बन कर चमकी या पेश-ए-सलीब-ओ-दार गिरी औरों पे न जाने क्या गुज़री इस तेग़-ओ-तबर के मौसम में हम सर तो बचा लाए लेकिन दस्तार सर-ए-बाज़ार गिरी जो तीर अंधेरे से थे चले वो सरहद-ए-जाँ को छू न सके चलता था मैं जिस के साए में गर्दन पे वही तलवार गिरी क्या जानिए कैसी थी वो हवा चौंका न शजर पत्ता न हिला बैठा था मैं जिस के साए में 'मंज़ूर' वही दीवार गिरी