जिस ने नहीं दुख हस्ती में सहा दुख-दर्द की बातें क्या जाने ग़ुर्बत के अलम में टूटी छत भीगी बरसातें क्या जाने उस नूर का जो भी मुनकिर है अंधा है अँधेरे का बासी वो शम्स-ओ-क़मर को क्या जाने तारों की बरातें क्या जाने जो सूद-ओ-ज़ियाँ का बंदा है दिल उस का हवस का फंदा है इंसाँ से मुरव्वत क्या जाने दुख की सौग़ातें क्या जाने कुछ मीर-ए-हरम में नख़वत थी कुछ कोर-बसीरत भी था वो पहचान न हो दुश्मन की जिसे दुश्मन की वो घातें क्या जाने वो हार के बाज़ी जीत गया मैं जीत के सब कुछ हार गई मुझ ऐसी सादा-दिल लड़की बाज़ी-ओ-बिसातें क्या जाने कुछ दुख तो मिले तक़दीर से थे कुछ उस पर इज़ाफ़ा उस ने किया वो शहर-ए-निगाराँ का बासी सूली पे ये रातें क्या जाने