जिस राह में पेच-ओ-ख़म नहीं है उस राह पे क्यों हरम नहीं है चलना है हम को चल रहे हैं मंज़िल क्या हर क़दम नहीं है सज्दा वो है ब-रब्ब-ए-का'बा जिस को क़ैद-ए-हरम नहीं है सारी ख़िल्क़त है सर झुकाए एक इस गर्दन में ख़म नहीं है जन्नत क्या है हवस का धोका क्या होगी ख़ुशी कि ग़म नहीं है सज्दा है करिश्मा-ए-तसव्वुर मत कह कि ख़ुदा सनम नहीं है