नदी पहाड़ घने जंगलों में चर्चा था वो बे-गुनाह शजर बे-लिबास कितना था मिली थी शाख़-ए-समर नूर-ए-जिस्म-ओ-जाँ के लिए जिसे वो हाथ लगा कर बुझा बुझा सा था तमाम उम्र दिल-ओ-जाँ मुराक़बे में रहे लतीफ़-तर लब-ओ-रुख़्सार का वज़ीफ़ा था कुछ इस तरह सफ़-ए-सय्यारगाँ हुई बरहम फिर इस के बाद न सूरज था और न साया था जहाँ पे ख़ाक-ए-बयाबाँ ख़िराम करती है वहाँ पे तकिया-ए-महताब था दरीचा था नई शरीअ'त-ए-जम्हूर बसने वाली थी नए उफ़ुक़ से वो 'ख़ुर्शीद' उगने वाला था