जिस तरह आज गिरफ़्तार वतन से निकले नामुरादाना कोई यूँ न चमन से निकले तौक़-ओ-ज़ंजीर पहन कर तो बन आई न मुराद शायद अब काम वफ़ा दार-ओ-रसन से निकले हम ने देखे हैं बहुत गर्दिश-ए-अय्याम के रंग बारहा कश्मकश-ए-चर्ख़-ए-कुहन से निकले शादमाँ हो के सही सख़्ती-ए-ज़िन्दान-ए-फ़िरंग मुस्कुराते हुए हम क़ैद-ओ-मेहन से निकले बे-ख़तर कूद पड़े आग के तूफ़ानों में ख़ून में तैर के सैलाब-ए-ज़मन से निकले जान पर खेल गए आग के तूफ़ानों में पर न हम दब के कहीं चर्ख़-ए-कुहन से निकले