रहता है इतना पाओं के तिल का असर सवार सर पर है घर पहुँचते ही अगला सफ़र सवार मैं चीख़ता रहा कि नहीं ख़त ये मेरे नाम लेकिन हवा के घोड़े पे था नामा-बर सवार मिलता नहीं है दश्त-नवर्दी में अब वो लुत्फ़ रहने लगा है ज़ेहन पे घर इस क़दर सवार किस चीज़ की न-जाने ज़रूरत कहाँ पड़े कर लूँ न अपने साथ सवारी में घर सवार राकिब को एक बार गिरा दे जो रख़्श-ए-उम्र मुमकिन नहीं वो इस पे हो बार-ए-दिगर सवार ये इश्क़ का नशा तो उतरता नहीं कभी 'बासिर' यूँही रहेगा ये आ'साब पर सवार