जिसे महबूब ख़ुद-दारी बहुत है उसे जीने में दुश्वारी बहुत है यूँही उजड़ा हुआ रहने दो मुझ को सँवरना दिल पे अब भारी बहुत है न जाए कूचा-ए-मेहर-ओ-वफ़ा में वो जिस को ज़िंदगी प्यारी बहुत है बहुत तड़पा लिया अब आ भी जाओ तबीअत दर्द से भारी बहुत है चल ऐ दिल इक नई दुनिया बसाएँ यहाँ नफ़रत की बीमारी बहुत है किसी को क्या बनाएँ जान अपनी हमें ख़ुद से भी बे-ज़ारी बहुत है तुला है सच कलामी पर वफ़ा दिल कि शानों पर ये सर भारी बहुत है