जिसे मिलें वही तन्हा दिखाई देता है हिसार-ए-ज़ात में सिमटा दिखाई देता है किसी के सर पे कोई साएबाँ नहीं हर शख़्स ख़ुद अपनी छाँव में बैठा दिखाई देता है वो दौर-ए-तेशा-गरी है कि आदमी का वजूद हर एक सम्त से टूटा दिखाई देता है सज़ा-ए-दार अभी तक है अहल-ए-हक़ के लिए अभी सलीब पे ईसा दिखाई देता है धुआँ धुआँ है फ़ज़ा आतिश-ए-तअ'स्सुब से नगर नगर मुझे जलता दिखाई देता है ये कैफ़ियत है जुनूँ की या दिल की वीरानी कि अपना घर मुझे सहरा दिखाई देता है भटक रही है किसी कर्बला में 'सोज़' की रूह कुछ इस तरह से वो प्यासा दिखाई देता है