कोई भी शख़्स जो वहम-ओ-गुमाँ की ज़द में रहा वो ता-हयात अज़ाब-ए-क़ुबूल-ओ-रद में रहा ख़ुदा की ज़ात में ज़म हो गया जहाँ दरवेश वहाँ न फ़र्क़ कोई कार-ए-नेक-ओ-बद में रहा वो मोहतरम है जो तस्ख़ीर-ए-ज़ात की ख़ातिर तमाम उम्र लड़ा और अपनी हद में रहा मिरे ही दम से कहानी में मा'नविय्यत थी मिरा शुमार मगर हर्फ़-ए-मुस्तरद में रहा वो हर लिहाज़ से ना-मो'तबर इकाई था मगर वक़ार से मौजूद हर अदद में रहा अजल ने ज़ीस्त के सब मसअले समेट लिए बड़े सुकून से वो गोशा-ए-लहद में रहा वो मैं नहीं था कोई और शख़्स था ऐ 'सोज़' जो मेरा जिस्म लिए मेरे ख़ाल-ओ-ख़द में रहा