जिसे पड़ी थी दिए से दिया जलाने की उसे भी लग गई आख़िर हवा ज़माने की क़दम ब-ख़ाक-ए-दयार-ए-ग़रीब हो जाए कि लेते जाएँ दुआएँ ग़रीब-ख़ाने की क़ुबूल कर लिए मैं ने तमाम-तर इल्ज़ाम ये एक आख़िरी कोशिश थी घर बचाने की हम आदमी हैं ख़ता-कार क्या ज़रूरत थी फिर आज़माए हुए लोग आज़माने की सुकूत-ए-गुम्बद-ए-शाहाना में ख़लल आया सुनी है गूँज सख़ावत के ताज़ियाने की वबा चली है कोई शहर में तो सब लौटे सुनी गई मिरे वीरान आशियाने की मैं अपने चेहरे की चुनता हूँ किर्चियाँ 'शाहिद' सज़ा मिली है मुझे आइना बनाने की