जिस्म-ओ-जाँ किस ग़म का गहवारा बने आग से निकले तो अँगारा बने शाम की भीगी हुई पलकों में फिर कोई आँसू आए और तारा बने लौह-ए-दिल पे नक़्श अब कोई नहीं वक़्त है आ जाओ शह-पारा बने अब किसी लम्हे को मंज़िल मान लें दर-ब-दर फिरते हैं बंजारा बने कम हो गर झूटे सितारों की नुमूद ये ज़मीं भी अंजुमन-आरा बने जुर्म-ए-ना-कर्दा-गुनाही है बहुत ज़िंदगी ही क्यूँ न कफ़्फ़ारा बने तोड़ डालें हम निज़ाम-ए-ख़स्तगी ये जहाँ कोहना दोबारा बने