फ़ज़ाओं में कुछ ऐसी खलबली थी कलेजा थाम कर वहशत चली थी कभी उस की जवानी मंचली थी कभी दुनिया भी साँचे में ढली थी यही आईना-दर-आईना उल्फ़त कभी अक्स-ए-ख़फ़ी नक़्श-ए-जली थी न छोड़ा सर्द झोंकों ने वफ़ा को जो शाख़-ए-दर्द की तन्हा कली थी बिगाड़ा किस ने है तब-ए-जहाँ को कभी ये रिंद-मशरब भी वली थी मुहीत हंगामा-ए-आफ़ाक़ पर है सदा-ए-दर्द जो दिल में पली थी ग़नीमत जानिए फिर नीम-रौशन चराग़-ए-राह से अपनी गली थी बुरा हो आगही का ज़ीस्त वर्ना गुज़र जाती बुरी थी या भली थी हमीं ने 'फ़ौक़' चाहा ज़िंदगी को हमीं से किश्त-ए-ग़म फूली-फली थी