जीत भी जाएँगे आमादा-ए-पैकार तो हों हम उलझने के लिए वक़्त से तय्यार तो हों ख़ुद-शनासी तो चलो ठहरी बहुत दूर की बात अपने किरदार से हम लोग ख़बर-दार तो हों मक़्सद-ए-ज़ीस्त ज़रा तू ही सदा दे उन को तुझ से हो के जो अलग होते हैं बेदार तो हों धूप अब तक तो मुंडेरों पे चढ़ी बैठी है उस के आँगन में उतर आने के आसार तो हों ऐसा मुश्किल तो नहीं तोड़ के तारे लाना आसमाँ पर शब-ए-फ़ुर्क़त में नुमूदार तो हों पस-ए-मंज़र भी बहुत कुछ है मगर हम नज़रें इन नज़ारों से हटा लेने को तय्यार तो हों मौत कहते हैं हर इक दुख की दवा है 'राहत' मर के भी देखेंगे हम जीने से बेज़ार तो हों