कहीं भी आप का 'राहत' कोई मक़ाम नहीं गुनाहगारों की फ़िहरिस्त में भी नाम नहीं किसी की याद ही आने से अब झिझकती है हमारे ज़ेहन में पहली सी धूम-धाम नहीं हमारी रूह पिघलती है शेर कहने में ये काम लोग समझते हैं कोई काम नहीं कहाँ से रौशनी आएगी ख़ाना-ए-दिल में कि शाम ढलने लगी है तुलू-ए-जाम नहीं ये किस के शेर नसीम-ए-सहर सुनाती है मिरा कलाम नहीं आप का कलाम नहीं हम उस के फ़ैज़ से जन्नत-मकीं तो हैं लेकिन उधर किसी से हमारी दुआ-सलाम नहीं मिरी तलाश नई मंज़िलें दिखाती है ठहर गया हूँ जहाँ वो मिरा मक़ाम नहीं ख़राब-हाली-ए-गुलशन से क्यों परेशान हूँ हमारे हाथ में गुलशन का इंतिज़ाम नहीं उभर भी सकता हूँ 'राहत' मैं वर्ता-ए-ग़म से बशर के बस का न हो ऐसा कोई काम नहीं