जीतने मारका-ए-दिल वो लगातार गया जिस घड़ी फ़त्ह का ऐलान हुआ हार गया थक के लौट आए अलम-दार-ए-मसावात आख़िर दूर तक सिलसिला-ए-अंदक-ओ-बिस्यार गया जिस को सब सहल-तलब जान के करते थे गुरेज़ इक वही शख़्स सू-ए-मंज़िल-ए-दुश्वार गया इन दिनों ज़ेहन की दुनिया में है मसरूफ़ बशर दिल की तहज़ीब गई दर्द का व्यवहार गया हम गुनहगारों से बा-मअ'नी रहा हश्र का दिन वर्ना ये सारा ही मंसूबा था बेकार गया 'साज़' है दिल-ज़दा अब भी तिरे शेरों के तुफ़ैल हम तो समझे थे कि ऐ मीर ये आज़ार गया