जितना चाहूँगी तुम वहाँ तक हो अब बताओ कि तुम कहाँ तक हो ना-रसाई ही जग-हँसाई है हाँ रसाई की तुम कमाँ तक हो बात अच्छी भी है मगर फिर भी इस बुढ़ापे में तुम जवाँ तक हो अपनी मौज-ए-हवस के अर्से में टूटी कश्ती के बादबाँ तक हो आज के दौर में मकाँ कैसा आसमानों के आसमाँ तक हो अपनी हस्ती में बद-गुमानी थी साँस में साँस के गुमाँ तक हो उम्र का हादिसा शजर क्या था इक कली हो तो बाग़बाँ तक हो बद-गुमानी का डोल-डाल के देख अर्श पर तुम फ़क़त ज़ियाँ तक हो मावरा है यहाँ न मा-सिवा को तुम जो बाक़ी हो बस गुमाँ तक हो