जितना सुलझाऊँ मैं उतनी ही उलझ जाती है ज़िंदगी कैसे मराहिल पे मुझे लाती है मुझ को जीने की हवस है कभी मरने का जुनूँ ज़िंदगी मेरी शब-ओ-रोज़ फिसल जाती है ख़ूब रिश्ता है कभी पास कभी दूर है वो ज़िंदगी अपनी है पर ग़ैर नज़र आती है रास्ते बंद हैं मंज़िल है न रहबर कोई ज़िंदगी भी तो उसी सम्त चली जाती है ज़िंदगी तुझ से है बस इतनी शिकायत मुझ को तू किसी ग़ैर में क्यूँ इतना सुकूँ पाती है ज़िंदगी ख़ूब है इंसाफ़ तिरी दुनिया का दर्द देती है मगर लब पे हँसी लाती है