जो बात दिल में थी काग़ज़ पे कब वो आई है कि अब क़लम में तो माँगे की रौशनाई है यही नहीं कि धुआँ चुभ रहा है आँखों में कुआँ भी सामने है और अक़ब में खाई है मैं अपने जिस्म के धब्बे छुपाए फिरता हूँ मिरे लिबास से महँगी मिरी धुलाई है जो तेरे क़ुर्ब में गुज़री न तेरी फ़ुर्क़त में वो उम्र हम ने न-जाने कहाँ गँवाई है सदफ़ हैं या कि गुहर झाग हैं कि रेत फ़क़त हमारे वास्ते क्या ले के मौज आई है