जो बात काम की है हँस के टाल देता है फ़ुज़ूल बात को अक्सर उछाल देता है तुलूअ' ग़ुरूब उरूज-ओ-ज़वाल देता है किसी को तमग़ा किसी को वो शाल देता है तग़य्युरात के साँचों में ढाल देता है ख़ुशी कली को तो गुल को मलाल देता है वो चार सम्त का दरिया बहा के आलम में किसी को ग़र्ब किसी को शुमाल देता है मछेरा कितनी फ़िरासत से जाल को अपनी उठा के गहरे समुंदर में डाल देता है हर एक काम को वो मेरे राएगाँ लिख कर पहाड़ खोद के चूहा निकाल देता है कभी कभी मुझे लम्स-ए-विसाल दे के 'ज़रर' मिरे वजूद को बरसों उजाल देता है