आप की शोला-सिफ़त ज़ात की याद आती है गर्मी-ए-क़ुर्ब की हर बात की याद आती है अपने बिफरे हुए जज़्बात की याद आती है एक आसेब को खंडरात की याद आती है उन से रातों में मुलाक़ात की याद आती है शहर में गाँव के बाग़ात की याद आती है जब किसी हिज्र-ज़दा रात की याद आती है दिल पे गुज़रे हुए सदमात की याद आती है मैं सराए का मुसाफ़िर था चला भी आया पर तिरे साथ के लम्हात की याद आती है जब भी वो गुम्बद-ओ-मीनार नज़र आते हैं सब्ज़ पोशाक के सादात की याद आती है गीत रुख़्सत के अलमनाक सदाएँ 'वसफ़ी' गश्त करती हुई बारात की याद आती है