जो बात रहे दिल में वही बात बड़ी है उल्फ़त का तक़ाज़ा भी यही कम-सुख़नी है साक़ी तिरी आँखों में हैं दो-जाम छलकते मय-ख़ाने की मस्ती तिरी आँखों में भरी है फ़नकार ने जब अपना क़लम ग़म में डुबोया तब जा के तिरे हुस्न की तस्वीर बनी है जब चाहा तुझे देख लिया जान-ए-तमन्ना ग़म-ख़ाना-ए-दिल में तिरी तस्वीर जुड़ी है क्यों सुब्ह नहीं होती मिरी शाम-ए-अलम की क्यों ज़ीस्त मिरी मौत के साँचे में ढली है जिस वक़्त नज़र आया तिरी ज़ुल्फ़ का साया उस वक़्त कहा दिल ने यहाँ छाँव घनी है तौहीन न कर इस की इसे कह ले मय-ए-नाब नासेह मिरे साग़र में तो शीशे की परी है ये वक़्त-ए-जवानी है गँवा इस को न 'हमदम' नादान इबारत के लिए उम्र पड़ी है