जो बेल मेरे क़द से है ऊपर लगी हुई अफ़्सोस हर बिसात से बाहर लगी हुई उस की तपिश ने और भी सुलगा रखा है कुछ जो आग है मकान से बाहर लगी हुई सुनते हैं उस ने ढूँढ लिया और कोई घर अब तक जो आँख थी तिरे दर पर लगी हुई पहचान की नहीं है ये इरफ़ान की है बात तख़्ती कोई नहीं मिरे घर पर लगी हुई अब के बहार आने के इम्कान हैं कि है हर पैरहन पे चश्म-ए-रफ़ू-गर लगी हुई इस बार तूल खींच गई जंग अगर तो क्या इस बार शर्त भी तो है बढ़ कर लगी हुई मनहूस एक शक्ल है जिस से नहीं फ़रार परछाईं की तरह से बराबर लगी हुई तेरे ही चार सम्त नहीं है हिसार-ए-जब्र पाबंदी-ए-जमाल है सब पर लगी हुई