जो भी आया है यहाँ हो के ही सरशार उठा सब का आँगन है न तू बीच में दीवार उठा मसअला और उलझता है ग़लत-फ़हमी से पहले तू बात तो कर बाद में तलवार उठा दिल भी रौशन हो तिरी आँखों में नूर आ जाए जज़्बा सादिक़ है तो इक ऐसा ही मीनार उठा सुर्ख़-रू और भी होती गई मक़्तल की ज़मीं सर हमारा भी कुछ इस तरह सर-ए-दार उठा तेज़-तर हो गए जब गर्दिश-ए-दौराँ के क़दम हाथ में जाम लिए झूम के मय-ख़्वार उठा ज़ुल्म जब हद से बढ़ा हाथ में किरपान लिए अपने 'नश्तर' की तरह कौन ये सरदार उठा