हर किसी दर पे कहाँ सज्दा रवा रखते हैं हम मुवह्हिद हैं फ़क़त एक ख़ुदा रखते हैं वो कड़ी धूप में रहमत की घटा रखते हैं सर पे माँ बाप की जो लोग दुआ रखते हैं दाग़ दामन पे नहीं नक़्श-ए-वफ़ा रखते हैं हम मोहिब्बान-ए-वतन उजली क़बा रखते हैं ज़ख़्म जो तू ने दिया दिल में सजा रखते हैं लज़्ज़त-ए-कर्ब के नाख़ुन से हरा रखते हैं तुम तो फिर अपने हो अपनों से अदावत कैसी हम तो दुश्मन पे भी दरवाज़ा खुला रखते हैं जगमगा उठता है तारीक मुक़द्दर उन का ख़ून अपना जो चराग़ों में भरा रखते हैं