जो भी अपनों से उलझता है वो कर क्या लेगा वक़्त बिखरी हुई ताक़त का असर क्या लेगा ख़ार ही ख़ार हैं ता-हद्द-ए-नज़र दीवाने है ये दीवाना-ए-इंसाफ़ उधर क्या लेगा जान पर खेल भी जाता है सज़ावार-ए-क़फ़स इस भरोसे में न रहिएगा ये कर क्या लेगा पस्ती-ए-ज़ौक़ बुलंदी-ए-नज़र दार-ओ-रसन उन से तू माँगने जाता है मगर क्या लेगा रहबर-ए-क़ौम-ओ-वतन उस को ख़ुदा शरमाए ख़ुद जो भटका हो वो औरों की ख़बर क्या लेगा शम-ए-महफ़िल का बक़िय्या है फ़रोग़-ए-उम्मीद शाम से जिस का ये आलम हो सहर क्या लेगा बाग़बाँ कोशिश-ए-बेजा पे मगन है लेकिन भंग बोता है जो गुलशन में समर क्या लेगा शाएर-ए-गौहर-ए-बे-आब-ए-ज़माना ऐ 'शाद' शेर-फ़हमों से कभी दाद-ए-हुनर क्या लेगा