जो चंद साँसें सुकूँ की यहाँ कमाया हूँ ये ख़्वाहिशात की कश्ती जला के पाया हूँ कि जिस के पैर से काँटे निकाले थे मैं ने उसी के तीरों से छलनी मैं हो के आया हूँ तिरी हदों की मुझे फ़िक्र तो कभी न थी मैं अपनी हद में हर इक हद तलक समाया हूँ फ़रेब-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ में कभी न आने का भुला के ख़ुद को ख़ुदी से अजी मिलाया हूँ मैं तुझ को कुछ भी नहीं दे सकूँगा ऐ 'ज़ाकिर' मैं अपने आप में अपना ही तो बक़ाया हूँ