जो चोट खाने से डर रहे हैं वही शजर बे-समर रहे हैं वो चाहते हैं मुझे डराना जो मेरे ज़ेर-ए-असर रहे हैं जिन्हें सिखाया था हम ने उड़ना वो पर हमारे कतर रहे हैं सुना है वो अब तो गुफ़्तुगू भी हमारे लहजे में कर रहे हैं परिंदे शोहरत के रफ़्ता रफ़्ता बुलंदियों से उतर रहे हैं वो आ रहे हैं ख़बर चली है सभी के चेहरे सँवर रहे हैं वो तक रहे हैं मुझे मुसलसल बहुत से चेहरे उतर रहे हैं वक़ीअ' कितने ये क़ैद-ख़ाने यहाँ पे अहल-ए-नज़र रहे हैं ये मौत हैरत-ज़दा है 'अंजुम' कि लोग जीने पे मर रहे हैं