जो दश्त-ए-तमन्ना में हर वक़्त भटकता है इंसान का दिल ऐसा मासूम परिंदा है इक ख़ाक का तूदा है पर अज़्मत-ए-दुनिया है नक़्क़ाश-ए-हक़ीक़त ने क्या नक़्श तराशा है मैं औरों को क्या परखूँ आइना-ए-आलम में मुहताज-ए-शनासाई जब अपना ही चेहरा है हम अपनी हक़ीक़त क्या पहचान सकें यारो पर्दा है निगाहों पे ज़ेहनों में धुँदलका है सोज़-ए-ग़म-ए-हस्ती से 'वाहिद' तिरी नस नस में ये गर्म लहू क्या है बहता हुआ लावा है