जो दिन था एक मुसीबत तो रात भारी थी गुज़ारनी थी मगर ज़िंदगी, गुज़ारी थी सवाद-ए-शौक़ में ऐसे भी कुछ मक़ाम आए न मुझ को अपनी ख़बर थी न कुछ तुम्हारी थी लरज़ते हाथों से दीवार लिपटी जाती थी न पूछ किस तरह तस्वीर वो उतारी थी जो प्यार हम ने किया था वो कारोबार न था न तुम ने जीती ये बाज़ी न मैं ने हारी थी तवाफ़ करते थे उस का बहार के मंज़र जो दिल की सेज पे उतरी अजब सवारी थी तुम्हारा आना भी अच्छा नहीं लगा मुझ को फ़सुर्दगी सी अजब आज दिल पे तारी थी किसी भी ज़ुल्म पे कोई भी कुछ न कहता था न जाने कौन सी जाँ थी जो इतनी प्यारी थी हुजूम बढ़ता चला जाता था सर-ए-महफ़िल बड़े रसान से क़ातिल की मश्क़ जारी थी तमाशा देखने वालों को कौन बतलाता कि इस के बा'द इन्ही में किसी की बारी थी वो इस तरह था मिरे बाज़ुओं के हल्क़े में न दिल को चैन था 'अमजद' न बे-क़रारी थी