सुनी न दश्त या दरिया की भी कभी मैं ने कि बे-ख़ुदी में गुज़ारी है ज़िंदगी मैं ने बिताई मौत के साए में ज़िंदगी अपनी बिना ही ज़हर के कर ली है ख़ुद-कुशी मैं ने नदी हो ताल समुंदर या दश्त हो कोई सभी के लब पे ही देखी है तिश्नगी मैं ने कभी तो मेरा कहा मान ज़िंदगी मेरी तिरी ख़ुशी में ही पाई है हर ख़ुशी मैं ने कभी है सर्द कभी गर्म से लिबासों में हवा को दी है कई बार ओढ़नी मैं ने तिरे लिए तो ज़मीं आसमान एक किए कहाँ कहाँ न तलाशा तुझे ख़ुशी मैं ने उधेड़ता ही रहा तू यक़ीन की चादर तमाम उम्र रफ़ू की सिलाई की मैं ने तुम्हारी याद के पौदे लगा के इस दिल में फ़ज़ा-ए-दिल में भी ख़ुशबू सी घोल दी मैं ने गुलाब की कली 'सीमा' निखर गई जब जब तुम्हारे इश्क़ की शबनम की बूँद पी मैं ने