जो हर क़दम पे अंधेरों से लड़ने वाले हैं हमारे साथ मोहब्बत के वो उजाले हैं वो जानते हैं जो तारीख़ पढ़ने वाले हैं हमीं ने गर्दिश-ए-दौराँ के बल निकाले हैं बनाए फिरते हैं हम ख़ुद को ख़ुश-लिबास मगर हमारे घर में अभी मकड़ियों के जाले हैं ख़ुलूस-ओ-रब्त-ओ-मुहब्बत जिन्हें मयस्सर है वो लोग कौन सी दुनिया के रहने वाले हैं दयार-ए-ग़ैर में तुम क्यूँ तलाश करते हो हमारे शहर में क्या अहल-ए-फ़न के लाले हैं जिन्हें ये अहल-ए-बसीरत समेट लाए थे वो हादसे किसी आशुफ़्ता सर ने टाले हैं हज़ार दौर-ए-तरक़्क़ी के बा'द भी 'नुसरत' क़दम क़दम पे अभी 'मीर' के हवाले हैं