जो हो सके तो कभी क़ैद-ए-जिस्म-ओ-जाँ से निकल यहाँ से मैं भी निकलता हूँ तू वहाँ से निकल इधर उधर से निकलना बहुत ही मुश्किल है बढ़ेगी भीड़ अभी और दरमियाँ से निकल ज़मीं भी तेरी है मालिक ग़ुलाम भी तेरे कभी तो मेरे ख़ुदा अपने आसमाँ से निकल अज़ल से दश्त-ए-जुनूँ तेरे इंतिज़ार में है क़बा-ए-आगही अब फेंक दे मकाँ से निकल तुझे तो मंज़िल-ए-मौहूम तक पहुँचना है कड़ी है धूप मगर फिर भी साएबाँ से निकल सुनेगा कोई न समझेगा तेरी बात 'शमीम' हज़ार बार कहा हर्फ़-ए-राएगाँ से निकल