जो हो वरा-ए-ज़ात वो जीना ही और है जीने का अहल-ए-दिल के क़रीना ही और है तुम सिक्का-ए-रवाँ की हवस में हो तुम को क्या जूया हैं जिन के हम वो ख़ज़ीना ही और है हम साहिल-ए-नजात पे कश्ती जला चुके अब रहनुमा कोई न सफ़ीना ही और है लिख कर दिया था उस ने जो वादा विसाल का उस में कोई नया सा महीना ही और है फेंकी न जाने उस ने मिरी क़ाश-ए-दिल कहाँ अंगुश्तरी में अब तो नगीना ही और है पहुँचा सँभल सँभल के सर-ए-बाम तब खुला मंज़िल नहीं ये उस की ये ज़ीना ही और है वो दिन गए कि सोते थे हम भी पसारे पाँव मुद्दत से अब तो शग़्ल-ए-शबीना ही और है 'हक़्क़ी' ये अपना चश्मा-ए-रंगीं उतारिए देखेंगे फिर कि दीदा-ए-बीना ही और है