मोहब्बत ख़ार-ए-दामन बन के रुस्वा हो गई आख़िर ये अक़्लीम-ए-अज़ीज़ाँ बे-ज़ुलेख़ा हो गई आख़िर बिसात-ए-आरज़ू तस्वीर-ए-सहरा हो गई आख़िर वो हंगामों की बस्ती हो की दुनिया हो गई आख़िर निशान-ए-सुब्ह यूँ गुम है कि अब निकले न जब निकले उधर अंदाज़-ए-शब ऐसा कि गोया हो गई आख़िर मिरी आँखों का बस इक ख़्वाब थी वो हसरत-ए-पिन्हाँ जो ख़ुद उन की निगाहों का तक़ाज़ा हो गई आख़िर क़लम को है उसी सूरत-कदे की जुस्तुजू या'नी कहीं पिन्हाँ थी वो सूरत जो पैदा हो गई आख़िर फ़क़त ईमाँ ही क्या पामाल हैं ईमाँ-शिकन लाखों दिलों की वो मता-ए-काफ़िरी क्या हो गई आख़िर नुमूद-ए-सुब्ह-ए-वा'दा से तो ख़ैर उम्मीद ही क्या थी वो फ़ुर्क़त की शब-ए-हंगामा-आरा हो गई आख़िर कभी ये लरज़िशें साज़-आश्ना होंगी तो देखोगे दिलों की बे-कली आशोब-ए-दरिया हो गई आख़िर हम अपने चाक-ए-दामन पर बहुत रुस्वा रहे 'हक़्क़ी' नज़र आईन-ए-महफ़िल से शनासा हो गई आख़िर