जो इल्तिफ़ात ज़रा भी निगाह-ए-यार करे मिरी ख़िज़ाँ को न शर्मिंदा-ए-बहार करे वो ज़िंदगी कि जो तार-ए-नफ़स पे हो मौक़ूफ़ ख़िलाफ़-ए-अक़्ल है उस का जो ए'तिबार करे छुपा रहा हूँ मैं ऐ ज़ब्त-ए-ग़म मोहब्बत को मगर ये डर है कि इफ़्शा निगाह-ए-यार करे जो बन गया है सबब राहतों का दुनिया में वही गुनाह न महशर में शर्मसार करे उसी को हासिल-ए-सद-ज़िंदगी समझता हूँ वो नक़्द-ए-उम्र जिसे सर्फ़-ए-राह-ए-यार करे सिपास-संज-ए-ख़िज़ाँ ही तमाम उम्र रहूँ वो दिल न दे कि जो गिरवीदा-ए-बहार करे वो जान दे न सुकूँ की तलाश हो जिस को वो दिल हमें दे जो हर लहज़ा बे-क़रार करे ज़हे-नसीब मिरे वाह रे करम उस का जो अपने बंदों में मुझ को भी वो शुमार करे बनाऊँ रश्क-ए-बहाराँ न किस लिए उस को वो ज़ख़्म जो मिरे सीने को गुल-एज़ार करे तरीक़-ए-कार हमें हो अता वही या-रब बिना-ए-रस्म-ए-मोहब्बत जो उस्तुवार करे पयाम-ए-वस्ल न क्यों ले के मौत आ जाए तमाम उम्र अगर सर्फ़-ए-राह-ए-यार करे दयार-ए-सरवर-ए-ख़ूबाँ से वो नसीम आए मिरी ख़िज़ाँ को जो सर्माया-ए-बहार करे न सरगिराँ हो वही बादा चाहता हूँ मैं वो बादा क्या हो जो सर्फ़-ए-रह-ए-ख़ुमार करे जो इंक़लाब पसंद काएनात ख़ुद ही हो तो फिर ज़माने का क्या कोई ए'तिबार करे मैं मिट चुका हूँ मगर डर मुझे ये है 'मेहदी' सितम नए न कहीं और रोज़गार करे