जो इस ज़ुल्फ़-ए-पेचाँ को हम देखते हैं धुआँ सा ये हर पेच-ओ-ख़म देखते हैं नज़र उन की कमज़ोर इतनी हुई है कि ऐनक से भी अब वो कम देखते हैं सँपोलों को रखते थे जिन में छुपा कर अब उन आस्तीनों में बम देखते हैं तिरे मय-कदे के बला-नोश मय-कश न जिन देखते हैं न रम देखते हैं वो गुज़रे हैं मोटर से पक्की सड़क पर अबस लोग नक़्श-ए-क़दम देखते हैं बहुत दिन रहे आप पिंडी में 'बुलबुल' चलो अब चलें तोरख़म देखते हैं