जो कल तलक थी मोहब्बतों में हमारी शिद्दत नहीं दिखेगी तुम्हें दोबारा क़रीब लाने की दिल में हसरत नहीं दिखेगी हमें ये लगता है बाद मरने के साथ वहशत भी दफ़्न होगी हमारा दा'वा है ऐसी नादिर कहीं भी तुर्बत नहीं दिखेगी भले ही आँखों की सारी नींदें चढ़ा दें वहशत की भेंट लेकिन हमारे ख़्वाबों की किर्चियों में तुम्हारी सूरत नहीं दिखेगी तुम्हारे गाँव से वक़्त-ए-हिजरत हमें तो बस एक ही क़लक़ था हमारी आँखों का रिज़्क़ जो थी हसीन सूरत नहीं दिखेगी वो लाख चाहें कि ज़िक्र-ए-'सुन्दुस' पे बात यकसर बदल दी जाए तो क्या किसी को भी उन के चेहरे की उड़ती रंगत नहीं दिखेगी