जो लम्हे टूट चुके उन को जोड़ते क्यूँ हो ये जुड़ गए तो उन्हें फिर से तोड़ते क्यूँ हो मिज़ाज-ए-शम्स बदल जाएगा तो क्या होगा जो ज़र्रे सोए हैं उन को झिंझोड़ते क्यूँ हो कब आँसुओं से मिटा है शिगाफ़-ए-आईना जो शीशा टूट चुका उस को जोड़ते क्यूँ हो ये रेत है यहाँ मिट जाएँगे तमाम नुक़ूश तुम अपना नक़्श-ए-क़दम उस पे छोड़ते क्यूँ हो तुम्हारी सम्त ज़माना बिल-आख़िर आएगा तुम अपनी फ़िक्र की सम्तों को मोड़ते क्यूँ हो तुम्हारी आँखों ने बख़्शी है गुल को नमकीनी तुम अपनी आँखों में जल्वे निचोड़ते क्यूँ हो 'करामत' ऐसे में साँसों का हाल क्या होगा सिसकते लम्हों की गर्दन मरोड़ते क्यूँ हो