जो ले के हाथ में अपने तबर भी आता है हर एक ज़ुल्म को वो रौंद कर भी आता है तमाम दिन जो भटकता है दश्त-ओ-सहरा में सुना है शाम को वो बाम पर भी आता है वो एक रिंद जो रोता है तेरी चाहत में उसी की आँख में ख़ून-ए-जिगर भी आता है मैं उस फ़क़ीर से रखता हूँ सिलसिला अपना जहाँ बड़े से बड़ा ताजवर भी आता है अकेले मुझ को कहीं जाने वो नहीं देता जहाँ मैं जाऊँ वहाँ हम-सफ़र भी आता है ये सूखा पेड़ निशानी है एक क़ुदरत की ख़ुदा के हुक्म से इस में समर भी आता है शिकन सी आती है 'अहमद' कभी जो माथे पर मैं ऐसे रोता हूँ चेहरा निखर भी आता है