जो ले के उन की तमन्ना के ख़्वाब निकलेगा ब-इज्ज़-ए-शौक़ ब-हाल-ए-ख़राब निकलेगा जो रंग बाँट के जाता है तिनके तिनके को अदू ज़मीं का यही आफ़्ताब निकलेगा भरी हुई है कई दिन से धुँद गलियों में न जाने शहर से कब ये अज़ाब निकलेगा जो दे रहे हो ज़मीं को वही ज़मीं देगी बबूल बोए तो कैसे गुलाब निकलेगा अभी तो सुब्ह हुई है शब-ए-तमन्ना की बहेंगे अश्क तो आँखों से ख़्वाब निकलेगा मिरे गुनाह बहुत हैं मगर तक़ाबुल में उसी का लुत्फ़-ओ-करम बे-हिसाब निकलेगा मिला किसी को न 'दानिश' कुछ आरज़ू के ख़िलाफ़ पस-ए-फ़ना भी यही इंतिख़ाब निकलेगा