मैं एक हर्फ़ मआ'नी का एक दफ़्तर वो मैं एक मौज-ए-सराब-ए-जुनूँ समुंदर वो तमाम साबित-ओ-सय्यार उस के हल्क़ा-ब-गोश ये काएनात है इक दायरा तो मेहवर वो तमाम मुम्लिकतें उस के ही क़लम-रौ मैं सब उस के ज़ेर-ए-नगीं बहर-ओ-बर का दावर वो सरों पे अहल-ए-करम के है अब्र रहमत का सितम-गरों के लिए क़हर का है लश्कर वो कहीं है दिन की तपिश में शजर शजर साया कहीं है शब के अँधेरे में माह-ओ-अख़तर वो कोई मदद को न आएगा ऐसी मंज़िल है पनाह जाँ को मिलेगी अगर है रहबर वो फिर उस की हम्द-ओ-सना किस तरह लिखी जाए हुदूद-ए-लफ़्ज़-ओ-मआ'नी से जब है बाहर वो किताब-ए-दीन की तकमील हो चुकी 'मोहसिन' ज़मीं पे भेज चुका आख़िरी पयम्बर वो