जो मर गए तिरी चश्म-ए-सियाह के मारे न हश्र को भी उठेंगे निगाह के मारे मिसाल-ए-बर्ग-ए-ख़िज़ाँ सरसर-ए-फ़िराक़ से आह पटकते फिरते हैं सर हम तबाह के मारे अज़ीज़ो दिल न दो यूसुफ़ की कर के चाह कभी कि जा के चाह में गिरते हैं चाह के मारे इलाही हश्र में आवाज़-ए-सूर सुन क्यूँकर उठूँगा आह मैं बार-ए-गुनाह के मारे हज़र कर आह-ए-दिल-नातवाँ से ऐ ज़ालिम कि कोह टल गए हैं बर्ग-ए-काह के मारे न समझियो कि फ़लक पर सितारे हैं रौशन हैं रख़्ना-दार मिरे तीर-ए-आह के मारे बिसान-ए-नक़्श-ए-क़दम तेरे दर से अहल-ए-वफ़ा उठाते सर नहीं हरगिज़ तबाह के मारे उजड़ गए ख़िरद-ओ-सब्र-ओ-होश-ओ-ताब-ओ-तवाँ उसी के नाज़-ओ-अदा की सिपाह के मारे जहान-ए-दिल ऐ 'जहाँदार' एक दिन न बसा जफ़-ए-शाह-ए-तग़ाफ़ुल-शिआर के मारे