जो मय दिल से पिए कोई तो फिर रख़्ने नहीं रहते

जो मय दिल से पिए कोई तो फिर रख़्ने नहीं रहते
ज़रा ये साफ़ कर ली जाए फिर तिनके नहीं रहते

हमारा मय-कदा महफ़ूज़ है तासीर-ए-मौसम से
यहाँ शीशे भरे जाड़ों में भी ठंडे नहीं रहते

शराब-ए-नाब के पीने से हाँ इतना तो होता है
पड़े रहते हैं जो आँखों पे वो पर्दे नहीं रहते

क़याम-ए-मय-कदा के वास्ते इक़रार क्यूँ साक़ी
पिलाएगा तो रह जाएँगे और वैसे नहीं रहते

लिबास-ए-ज़ाहिरी पर मय से बे-शक दाग़ पड़ते हैं
मगर पीने से अंदर क़ल्ब के धब्बे नहीं रहते

नहीं देता जो मय अच्छा न दे तेरी ख़ुशी साक़ी
पियाले कुछ हमेशा ताक़ पर रक्खे नहीं रहते

छुपाए किस तरह ज़ाहिद से राज़-ए-मय-कशी कोई
ये हज़रत मय-कशों का हाल बे-पूछे नहीं रहते

नमाज़ों से थके ज़ाहिद तो मय-ख़ाने में आ जाना
ये उठने बैठने के इस जगह झगड़े नहीं रहते

ख़ुदा के दामन-ए-रहमत से अपना दामन-ए-इस्याँ
वो क्या टाँकेगा जिस के आँख में डोरे नहीं रहते


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