वो हर्फ़-ए-शौक़ हूँ जिस का कोई सियाक़ न हो समझ सको न अगर इश्क़ का मिराक़ न हो तिरे फ़िराक़ से मानूस हो के सोचता हूँ तिरी वफ़ा की तरह ये भी इक मज़ाक़ न हो जुदा न हों जिन्हें याराना हो जुदाई का मिलें न वो जिन्हें मिलने का इश्तियाक़ न हो हज़ार शौक़ तिरा कम हो पर ख़ुदा न दिखाए वो दिन कि तेरी जुदाई भी दिल पे शाक़ न हो भला हुआ कि ग़म-ए-आशिक़ी शिआ'र किया वो क्या करे जो किसी भी हुनर में ताक़ न हो