जो मुझ पे क़र्ज़ है इस को उतार जाऊँ मैं ये और बात है जीतो कि हार जाऊँ मैं कभी मैं ख़्वाब में देखूँ हरी भरी फ़सलें कभी ख़याल के दरिया के पार जाऊँ मैं इक और मार्का-ए-जबर-ओ-इख़तियार सही इक और लम्हा-ए-ताज़ा गुज़ार जाऊँ मैं बिखर गए हैं जो लम्हे समेट लूँ उन को बिगड़ गए हैं जो नक़्शे सँवार जाऊँ मैं कभी तो अपनी तलब में भी इस तरह निकलूँ ख़ुद अपने-आप से बेगाना-वार जाऊँ मैं लहू का रंग कि आतिश का रंग कुछ तो हो जो नक़्श दब से गए हैं उभार जाऊँ मैं मोहब्बतों को न लग जाए नफ़रतों की नज़र ख़ुदा करे कि हर इक दुख सहार जाऊँ मैं फिर अपना अक्स मैं अपनी ही ज़ात में देखूँ जो हो सके तो हर इक दुख के पार जाऊँ मैं किसी के रंग में ख़ुद को मैं रंग लूँ 'अतहर' जवाब आए न आए पुकार जाऊँ मैं