कभी उड़ो तो सही तुम उड़ान से ऊपर फ़ज़ाएँ और भी हैं आसमान से ऊपर मिरा सफ़ीना अजब कश्मकश में तैरता था हवा सुकूत में थी बादबान से ऊपर किसी ने सच न कहा और सब ने सच जाना अजब कमाल-ए-बयाँ था बयान से ऊपर मिरे हरीफ़ के सब तीर बे-ख़ता तो न थे मगर वो दस्त-ए-अमाँ था कमान से ऊपर किसी ने आज ही पानी में पाँव डाला है चला है आज ही दरिया निशान से ऊपर मिरा क़बीला तह-ए-आसमाँ है बे-ख़ेमा यक़ीं की हद है मगर हर गुमान से ऊपर अगर ये क़ाफ़िला मेरा नहीं तो फिर 'अतहर' है किस अलाव का परतव चटान से ऊपर