जो न हों कुछ तशरीह-तलब कम होते हैं उस के इशारे सारे मुबहम होते हैं हर चेहरा हर रंग में आने लगता है पेश-ए-नज़र यादों के अल्बम होते हैं ऐसे में आ जाती है अपनी ही याद आईना होता है और हम होते हैं भूलने लगते हैं जुगनू भी अपनी राह पलकों पर जब क़तरा-ए-शबनम होते हैं मौज-ए-बला जब सर से गुज़रने लगती है मज़लूमों के हाथ ही परचम होते हैं मुट्ठी से फिसले ही जाते हैं हर फल वस्ल के लम्हे तार-ए-रेशम होते हैं क्या जाने जो दीवार-ओ-दर का है असीर राहों में क्या क्या पेच-ओ-ख़म होते हैं कोई पुराना ख़त कुछ भूली-बिसरी याद ज़ख़्मों पर वो लम्हे मरहम होते हैं 'अंजुम' जलने लगते हैं हर सम्त दिए दर्द के हमले दिल पर पैहम होते हैं