जो नहीं लगती थी कल तक अब वही अच्छी लगी देख कर उस को जो देखा ज़िंदगी अच्छी लगी थक के सूरज शाम की बाँहों में जा कर सो गया रात भर यादों की बस्ती जागती अच्छी लगी मुंतज़िर था वो न हम हों तो हमारा नाम ले उस की महफ़िल में हमें अपनी कमी अच्छी लगी वक़्त-ए-रुख़्सत भीगती पलकों का मंज़र याद है फूल सी आँखों में शबनम की नमी अच्छी लगी दाएरे में अपने हम दोनों सफ़र करते रहे बर्फ़ सी दोनों जज़ीरों पर जमी अच्छी लगी इक क़दम के फ़ासले पर दोनों आ कर रुक गए बस यही मंज़िल सफ़र की आख़िरी अच्छी लगी